लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
बजरंगी-सच पूछो,
तो सबसे बड़ा
पापी मैं हूँ
कि गउओं का
पेट काटकर, उनके
बछड़ों को भूखा
मारकर अपना पेट
पालता हूँ।
सूरदास-भाई, खेती
सबसे उत्ताम है,
बान उससे मध्दिम
है; बस, इतना
ही फरक है।
बान को पाप
क्यों कहते हैं,
और क्यों पापी
बनते हो? हाँ
सेवा निरघिन है,
और चाहो तो
उसे पाप कहो।
अब तक तो
तुम्हारे ऊपर भगवान्
की दया है,
अपना-अपना काम
करते हो; मगर
ऐसे बुरे दिन
आ रहे हैं,
जब तुम्हें सेवा
और टहल करके
पेट पालना पड़ेगा,
जब तुम अपने
नौकर नहीं, पराए
के नौकर हो
जाओगे, तब तुममें
नीतिधरम का निशान
भी न रहेगा।
सूरदास ने ये
बातें बड़े गंभीर
भाव से कहीं,
जैसे कोई ऋषि
भविष्यवाणी कर रहा
हो। सब सन्नाटे
में आ गए।
ठाकुरदीन ने चिंतित
होकर पूछा-क्यों
सूरे, कोई विपत
आने वाली है
क्या? मुझे तो
तुम्हारी बातें सुनकर डर
लग रहा है।
कोई नई मुसीबत
तो नहीं आ
रही है?
सूरदास-हाँ, लच्छन
तो दिखाई देते
हैं, चमड़े के
गोदामवाला साहब यहाँ
एक तमाकू का
कारखाना खोलने जा रहा
है। मेरी जमीन
माँग रहा है।
कारखाने का खुलना
ही हमारे ऊपर
विपत का आना
है।
ठाकुरदीन-तो जब
जानते ही हो,
तो क्यों अपनी
जमीन देते हो?
सूरदास-मेरे देने
पर थोड़े ही
है भाई। मैं
दूँ, तो भी
जमीन निकल जाएगी,
न दूँ, तो
निकल जाएगी। रुपयेवाले
सब कुछ कर
सकते हैं।
बजरंगी-साहब रुपयेवाले
होंगे, अपने घर
के होंगे। हमारी
जमीन क्या खाकर
ले लेंगे? माथे
गिर जाएँगे, माथे!
ठट्ठा नहीं है।
अभी ये ही
बातें हो रही
थीं कि सैयद
ताहिर अली आकर
खड़े हो गए,
और नायकराम से
बोले-पंडाजी, मुझे
आपसे कुछ कहना
है, जरा इधार
चले आइए।
बजरंगी-उसी जमीन
के बारे में
कुछ बातचीत करनी
है न? वह
जमीन न बिकेगी।
ताहिर-मैं तुमसे
थोड़े ही पूछता
हूँ। तुम उस
जमीन के मालिक-मुख्तार नहीं हो।
बजरंगी-कह तो
दिया, वह जमीन
न बिकेगी, मालिक-मुख्तार कोई हो।
ताहिर-आइए पंडाजी,
आइए, इन्हें बकने
दीजिए।
नायकराम-आपको जो
कुछ कहना हो
कहिए; ये सब
लोग अपने ही
हैं, किसी से
परदा नहीं है।
सुनेंगे, तो सब
सुनेंगे, और जो
बात तय होगी,
सबकी सलाह से
होगी। कहिए, क्या
कहते हैं?
ताहिर-उसी जमीन
के बारे में
बातचीत करनी थी।
नायकराम-तो उस
जमीन का मालिक
तो आपके सामने
बैठा हुआ है।
जो कुछ कहना
है, उसी से
क्यों नहीं कहते?
मुझे बीच में
दलाली नहीं खानी
है। जब सूरदास
ने साहब के
सामने इनकार कर
दिया, तो फिर
कौन-सी बात
बाकी रह गई?
बजरंगी-इन्होंने सोचा होगा
कि पंडाजी को
बीच में डालकर
काम निकाल लेंगे।
साहब से कह
देना, यहाँ साहबी
न चलेगी।
ताहिर-तुम अहीर
हो न, तभी
इतने गर्म हो
रहे हो। अभी
साहब को जानते
नहीं हो, तभी
बढ़-बढ़कर बातें
कर रहे हो।
जिस वक्त साहब
ज़मीन लेने पर
आ जाएँगे, ले
ही लेंगे, तुम्हारे
रोके न रुकेंगे।
जानते हो, शहर
के हाकिमों से
उनका कितना रब्त-जब्त है?
उनकी लड़की की
मँगनी हाकिम-जिला
से होनेवाली है।
उनकी बात को
कौन टाल सकता
है? सीधो से,
रजामंदी के साथ
दे दोगे, तो
अच्छे दाम पा
जाओगे; शरारत करोगे, तो
जमीन भी निकल
जाएगी, कौड़ी भी हाथ
न लगेगी। रेलों
के मालिक क्या
जमीन अपने साथ
लाए थे? हमारी
ही जमीन तो
ली है? क्या
उसी कायदे से
यह जमीन नहीं
निकल सकती?